Sunday, November 24, 2013

प्रेरणा

  वो सभी रेलवे स्टेशन पे खड़े ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे | पता नहीं क्या हुआ की ट्रेन आई सभी दोस्त ट्रेन में चढ़ने के लिए भागे |पता नहीं कैसे वो पटरी पे गिर गई और गाड़ी उस की टांगो से गुजरती हुई निकल गई |
सभी दोस्त गाड़ी से उतर गए और उसे देख सन्न रह गए | उसकी दोनों टाँगे कट चुकी थी | फिर भी वो चिल्ला रही थी मुझे हस्पताल ले के चलो  | उसके दोस्त जब उसे उठा के हस्पताल ले जाने लगे तो वो फिर चिल्लाई मेरी टांगें  उठाओ | कमाल  का हौसला था | दोस्तों ने पटरी के दूसरी ओर से उसकी टांगें उठाई और हस्पताल ले गए | सभी दोस्त और लोग जो उसके साथ आये थे सन्न रह गए यह हादसा देख कर | कहाँ कुछ देर पहले सभी खिलखिला रहे थे और कहाँ अब दुआएं मांग रहे थे |  डाक्टरों ने फटाफट उसे ओपरेशन  थियटर में पहुँचाया और सरजरी  में जुट गए | उसकी एक टांग ही जोड़ पाए दूसरी टांग नहीं जोड़ सके वो |
                                                                                   अगर   वो स्टेशन पे नहीं चिल्लाती की मेरी टाँगे भी ले चलो तो शायद वो दोनों टांगों से महरूम हो जाती | ऐसा साहस विरले लोगों में ही होता है  | वर्ना खून से लथपथ एक २२ वर्ष की लड़की तो यूँ ही होश खो बैठती |  अभी हस्पताल में उसका तीसरा दिन था कि वो छुट्टी मांगने लगी | डॉक्टर  और माँ बाप हैरान कि क्या करें  पर वो डॉक्टर  की मिन्नतें  कर रही थी नहीं मुझे ३ घंटे की छुट्टी दे दीजिये मेरा आज आखरी  इम्तिहान है  | मुझे जाने दो वरना मेरा सारा साल खराब हो  जायेगा  | डॉक्टर  भेजने को तैयार नहीं थे | सभी समझा समझा कर थक गए कि  जान बच  गई यही बहुत है  | वो नहीं मानी अन्त  में डॉक्टर ने छुट्टी दे दी इम्तिहान में जाने की और वो उसी हालत  में जा के अपनी परीक्षा दे के वापिस हस्पताल आ गई | कमाल का हौसला है इस  लड़की  का | यह महज एक घटना ही नहीं बहुत बड़ी प्रेरणा है कि जो चला गया उसका दुःख बाद  में  कर लेना  जो  बच  गया उसे तो बचाओ  | अगर वो लड़की अपने दोस्तों को अपनी कटी टांगें उठाने को न कहती तो शायद वो दोनों टाँगें खो बैठती , अपने हौसले के दम पे उसने एक टांग तो बचा ली |  मुझे तो इस घटना से बहुत प्रेरणा मिली और आज भी मेर  दिमाग  में अंकित है यह घटना  | प्रेरणा मिलती है बस नजरिया चाहिए जीवन में हर पल हर क्षण प्रेरणा देता है हमें | सलाम है ऐसे जज्बे को  |

                                         

Sunday, October 27, 2013

फ़रिश्ते ज़मीं पे ही मिलते हैं

 9 जनवरी का दिन था , अपने पति के दफ़्तर जाने के बाद ठण्ड होने के कारण दोबारा रजाई में दुबक गई | आँख खुली तो लगभग दोपहर के 12 बज रहे थे | अपने लिए चाए बनाई और दोपहर के खाने की तैयारी  शुरू कर दी | आज मन वैसे भी खुश था शाम को घर बापिस जाना था बच्चों के पास | तभी दरवाज़े की घंटी बजी सोचा आज जल्दी आ गए होंगे , जैसे ही दरवाज़ा खोला दफ़्तर के ही कुछ लोग खड़े थे | रसोई में अध् कटी सब्जी  वैसे ही छोड सवालिया नज़र से उनकी तरफ देखा | उनमें से मैं सिर्फ एक को ही जानती थी  | उसी ने कहा की भाभी जी हमारे साथ चलिए भाई साहब की तबीयत खराब है | हतप्रत खड़ी मैं कुछ सोच ही ना पाई और न कह पाई |
                                                                        बेगानी  जगह  न जान न पहचान किसी से कुछ देर सोच कर मैं चल पड़ी |  वहां से हॉस्पिटल का रास्ता लगभग 8कि. मी . पूरे रास्ते उनमें से किसी ने कोई बात नहीं की | दिल डूबा  जा रहा था कि पता नहीं क्या हो गया अच्छे  भले तो गए थे सुबह | जैसे ही हम लोग मेडिकल  यूनिवर्सिटी पहुंचे  वहां का दृश्य देख कर सन्न रह गई | मेरे पति को डॉक्टरों ने घेर रखा  था अंदर जाने की इजाजत नहीं थी | वहां जा के पता चला कि दिल का दौरा पड़ा है दफ़्तर में ही | सारा स्टाफ़ वहां सहमा हुआ खड़ा था | मैं तो रो भी न पाई किसको रो के दिखाती | कुछ लोग दिलासा देने लगे | कुछ देर बाद डॉक्टर ने मुझे बुलाया कि कुछ देर बात कर सकती हैं आप , खुद को मजबूत करके अंदर जब गई तो क्या  बात करती | दर्द में छटपटा रहे थे ICU में  थे , फिर भी इतना ही कह पाई कि क्या  हुआ कोई बात नहीं अगर कोई  चिंता है तो छोड़ दीजिये हम दोनों ने आजतक भी सब का सामना किया है | उन्होंने हाथ हिला कर ही जबाब दिया | मुझे बाहर  भेज दिया गया | अब क्या  करूँ किसको पूछूँ कुछ समझ नहीं आ रहा था | पैसे भी उतने ही थे मेरे पास | डॉ  को पूछा कि  आप बताएं  कितने पैसे  जमा करवाने हैं मुझे , उनमें से एक डॉ  जिनका नाम मुझे आज भी याद है डॉ विक्रम मेरे पास आये और बोले मैडम कोई बात नहीं आप मुझे बताएं  कितने पैसे चाहिए आप मुझसे ले लीजिए | ऐसे फ़रिश्ते भी होते हैं दुनियां में नमन है मेरा उनको  | उनका दर्द कंट्रोल ही नहीं हो रहा  था  और बारिश थी कि  वो भी अपने पूरे रूप में थी  पूरी रात  घनघोर बारिश होती रही |
                                                                                               जनवरी माह की ठण्ड उपर से घनघोर बारिश , नंगे  पांव दोपहर से घूम रही थी |मकान मालिक को घर से फोन गया तो वो भी हस्पताल आ गए और ढाढस  बंधाने लगे कि  आप किसी तरह की चिंता न करें हम सब हैं | अगर पैसों की जरुरत होगी तो मैं हूँ यहाँ पर | शाम तक दफ़्तर का सारा स्टाफ़ वहीँ था क्यूंकि सबको पता था कि मैं इस जगह से बिलकुल अंजान  थी बाकी लोग कुछ को मदद के लिए हस्पताल में छोड़कर चले गए  |अपने माँ बाप को  सूचना भिजवा दी पर उनेहं  भी पहुँचने में  8 घंटे लगने थे | उस दौरान मुझे नहीं पता वो दफ़्तर का आदमी वरिश में कहाँ से बार बार दवाइयां ला रहा था , जो कुछ चाहिए था कहाँ से ला रहा था | एक ऑफिसर जाते जाते मुझे कुछ रकम दे गए ताकि जरुरत पड़ने पे काम आ सके | पर वहां हर  कोई मेरे लिए फ़रिश्ता था | आधीरात  तक माँ और पापा मेरी छोटी बहन के साथ पहुंचे जब उनेह मिलने बाहर आई तो पता चला कि  कितनी कंपकंपाती ठंड थी और वो दफ़्तर का आदमी भीगा हुआ बहार बैठा था |
                                  दर्द रुकने  का नाम नहीं ले रहा था डॉ ने और दवा देने से मन कर दिया | वो दर्द से छटपटा    रहे थे | सुबह तक पापा को छोड़ कर बाकी सब लोग वापिस चले गए | मुझे तो बाद में पता चला कि डॉ ने साथ ले जाने से मना कर दिया था | पता नहीं कब आँख लग गई मैं जमीन पर ही सो गई थी | कुछ देर बाद पास के एक मरीज़ की पत्नी ने मुझे चाय दी वो बजुर्ग महिला शायद देख रही थी या भांप गई थी कि  मैं अकेली हूँ और  नई जगह है मेरे लिए | कौन कहता है कि फ़रिश्ते आसमां मैं होते हैं , मुझे तोहर  इंसान वहां फ़रिश्ता लग रहा था  | फ़रिश्ते इसी ज़मीं पे हैं |
 

Saturday, October 5, 2013

माँ

माँ जब तू प्यार  वात्सल्य से मेरे सर पे हाथ रखती थी तो यूँ लगता था जैसे मैं सबसे सुरक्षित हूँ | मुझे डर नाममात्र भी नहीं महसूस होता था , सुकून में खो जाती थी | और पापा जब आते थे तो भाग के उनके गले में बाहें डाल झूल जाती थी    तो पापा के चेहरे पे जो भाव आते थे वो अब समझ आते हैं | अब तो चाह के भी वो सब नहीं कर पाती |
                        तुझसे ही मैंने माँ सयंम और सहनशीलता सीखी है | तूने ही सिखाया था नारी ममता का सागर होती है , तेरी ममता ने ही यह भाव दिए हैं मुझे |तूने ही सिखाया था की अगर कोई मर्यादा लांघे तो चंडी रूप धर लो |मैंने तो तुझ में ही  नौ रूप देखे हैं
                                         " प्यार का रूप "  माँ के रूप में तुम्हारा हमें दुलारना  | बहु के रूप में  सारे घर को इकठे रखना | कैसे दादी माँ का ध्यान रखना | बिन कहे उनकी हर बात समझ लेना |  हमें तो पता ही नहीं चलता था कि घर में क्या  हो रहा है | सब खुद अकेले ही झेलती रही माँ | घर में " शान्ति " स्वरूप तब तो नहीं पर अब समझ आता है | जब खुद उसी रूप को निभाती हूँ |
                                    "  तपस्वी " रूप  भी देखा है मैंने तेरा  | कैसे अकेली माँ तू हम चारों बहनों को अकेले संभालती थी जबकि पापा तो बहुत दूर दूसरे शहर में रहते  थे नौकरी के सिलसिले में |तुझसे ही सीख कर मैं नौकरी के साथ साथ  घर परिवार संभाल  पाई हूँ | रात दिन मेहनत करना तुझसे सीखा है मैंने |
                                                  माँ हर मुश्किल में हमें हिमालय की तरह दृढ़  रह कर उसका सामना करना सिखाया | " स्थिरता और दृढ़ता  " तेरा एक और रूप देखा था मैंने और तुझे देख कर हम में भी यह खुद वा खुद आ गया |इसी के कारण में शादी के बाद भी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर पाई |  और अपने आप को आगे बढ़ा पाई |
                              माँ कैसे तू वक़्त पड़ने पर दुर्गा की तरह परिवार की रक्षा करती थी  | गांव में जब जमीन या कोई और मुसीबत आ पड़ती थी , तब " शक्ति " रूप भी अख्तियार कर लेती थी  और तुझे देख देख हम भी सीख गई की जरूरत पड़ने पे दुर्गा रूप भी नारी को धारण करना पड़ता है |
                                                                           सभी कहते थे की कैसे होगी इन लडकिओं  की शादी तब तुझमे  "आत्मविश्वास " दिखता था जिसके कारण हम आज अच्छे घरों में हैं   | आत्मविश्वास के कारण ही हम आज सुखी हैं अपने अपने घरों में |

                                                     
                                            

Thursday, September 12, 2013

यह कैसी संतुष्टि ?

 तुझे कैसे कैसे पाला मैंने यह तू नहीं समझ पायेगी |जब तक समझेगी बहुत देर हो जायेगी | वो अपनी बेटी को समझा रही थी | यह दुनियां जितनी सीधी  दिखाती है उतनी नहीं है | हर मोड़ पर लुभाने वाले मिलते हैं |दो चार घड़ी बिता के चलते बनते हैं | पर बेटी को कहाँ समझ आ रही थी माँ की बातें , वो कान बंद सुन रही थी |  मन ही मन चिढ़ रही थी कि जब देखो उपदेश देती रहती है माँ  | मै कोई बच्ची हूँ  | बड़ी हो गई हूँ माँ को क्या पता
 कौन से जमाने की बातें कर रही है माँ |
                                                                   रानी का बोलना जारी था | तू घर से दूर रहती है देर सवेर बाहर मत निकला कर जमाना खराब है  | और हाँ लड़कों  बढ़कों के चक्कर से दूर ही रहना  |हमारी संस्कृति यह नहीं है | उसकी बेटी मन ही मन मुंह बिचकाती माँ को सुन रही थी  | पता था थोड़ी देर बाद जान छूट जायेगी |
माँ नसीहतों पे नसीहतें दिए जा रही थी  | जैसे ही फोन बंद हुआ रानी की बेटी ने चैन की साँस ली| और बोली पता नहीं कब समझेंगे घर वाले रात दिन उपदेश यह मत करो वो मत करो  उफ़ उसने फ़ोन पटका और दोस्तों के साथ जाने के लिए तैयार होने लगी  |
                                                 फटाफट तैयार हो के दोस्तों के संग रात की पार्टी के लिए निकल पड़ी रानी की बेटी  | नाच गाना  मस्त महौल भाढ़ में जाएँ यह पुराने जमाने की सोच के लोग | दुनियां कहाँ की कहाँ पहुँच गई
और इनकी वही घिसी पिटी बातें  | घर पे रानी दिल को तसल्ली दिए हुए की बेटी उसका कहा नहीं टालती |
संस्कारी है मेरी बेटी  | ताउम्र  के संस्कार  कोई दिनों में नहीं बदल जाते  | मैंने पूरी ज़िन्दगी इन बच्चों को पालने और अच्छे संस्कार देने में लगा दी  | मेरे बच्चे कभी मुझे चोट नहीं पहुंचाएंगे  | उन्होंने मुझे पल पल उनके लिए मरते देखा  है | और बेटी अपने दोस्तों संग मस्त  | दोनों अपने आप में अपनी अपनी जगह संतुष्ट  |

Friday, August 30, 2013

संस्कार

    दिसम्बर की मीठी धूप में खड़े हो कर कुछ आराम मिल रहा था |इन दिनों सूर्य देवता भी अपनी अकड़ दिखाते हैं |  धुंध के कारण इनके दर्शन भी कम ही होते हैं | यूँ ही छत से नीचे की तरफ नज़र गई | देखा दो लड़के गली में अंदर की तरफ आ रहे थे | स्मार्ट पेंट कोट पहने हुए |उनमें से एक लड़का एकदम से हमारे दरवाज़े के पास रुक गया | उसने  पैरों में पड़ी हुई रोटी उठाई माथे से लगा कर पास में एक ऊँचे स्थान पर रख दी | जब ध्यान से देखा तो याद  आया ओह यह तो वही लड़का था जिसे मैंने रोटरी क्लब में वायलन बजाते हुए देखा था . वो विदेश से आये मेहमानों से फर्राटेदार अंग्रेजी बोल रहा था | आज उसका रोटी को माथे से लगाके ऊँची जगह पर रखना उसके संस्कारों का प्रतिबिम्ब था |मन ही मन उन माता पिता को सलाम किया कैसे उन्होंने अपने बेटे को आधुनिकता के साथ साथ अपनी संस्कृति से जोड़ रखा है|
                                                                                                  
                                                                                                 आज देख कर  मन पुलकित हो गया कि यह किताबी बातें नहीं हैं | संस्कार बच्चों  को घर से ही मिलते हैं |

Thursday, March 7, 2013

         मुझे गर्व है कि मैं नारी हूँ
कौन कहता है कि मेरी पहचान नहीं
मैं किसी की बेटी ,किसी की बहन
किसी की बहू ,किसी की पत्नी कहला के भी खुश हूँ
मुझे गर्व है कि मै नारी हूँ
कौन कहता है मैं गुलाम हूँ
सभी मेरे प्रिय हैं मैं गुलाम नहीं
बेटी बिना घर सूना ,रिश्ते फीके
बहन बिना भाई की कलाई सूनी

हर त्योहार फीका, भावी ननद बिना न सुहाय

बहू बिना तो अगली पीढ़ी कहाँ से आये
पत्नी बन मैं अपने पिया को हर  पल हर
कदम साथ चलूँ , दुःख में भी सुख में भी
मेरे दो शब्द सब को नया साहस दें
"कोई बात नहीं हम सब हैं न "
अपनी संस्कृति को संजोय
अपनी बहू और बेटी को विरासत में दूं
यह परम्परा यूँ ही चलाऊं ,

मेरी भरी मांग कोई गुलामी की निशानी नहीं
 
मेरे माथे पे बिंदिया से मेरा रूप निखरता है
मुझे पढ़ने की आजादी है
और कौन सी आजादी चाहिए
मुझे गर्व है कि मैं नारी हूँ