Thursday, September 12, 2013

यह कैसी संतुष्टि ?

 तुझे कैसे कैसे पाला मैंने यह तू नहीं समझ पायेगी |जब तक समझेगी बहुत देर हो जायेगी | वो अपनी बेटी को समझा रही थी | यह दुनियां जितनी सीधी  दिखाती है उतनी नहीं है | हर मोड़ पर लुभाने वाले मिलते हैं |दो चार घड़ी बिता के चलते बनते हैं | पर बेटी को कहाँ समझ आ रही थी माँ की बातें , वो कान बंद सुन रही थी |  मन ही मन चिढ़ रही थी कि जब देखो उपदेश देती रहती है माँ  | मै कोई बच्ची हूँ  | बड़ी हो गई हूँ माँ को क्या पता
 कौन से जमाने की बातें कर रही है माँ |
                                                                   रानी का बोलना जारी था | तू घर से दूर रहती है देर सवेर बाहर मत निकला कर जमाना खराब है  | और हाँ लड़कों  बढ़कों के चक्कर से दूर ही रहना  |हमारी संस्कृति यह नहीं है | उसकी बेटी मन ही मन मुंह बिचकाती माँ को सुन रही थी  | पता था थोड़ी देर बाद जान छूट जायेगी |
माँ नसीहतों पे नसीहतें दिए जा रही थी  | जैसे ही फोन बंद हुआ रानी की बेटी ने चैन की साँस ली| और बोली पता नहीं कब समझेंगे घर वाले रात दिन उपदेश यह मत करो वो मत करो  उफ़ उसने फ़ोन पटका और दोस्तों के साथ जाने के लिए तैयार होने लगी  |
                                                 फटाफट तैयार हो के दोस्तों के संग रात की पार्टी के लिए निकल पड़ी रानी की बेटी  | नाच गाना  मस्त महौल भाढ़ में जाएँ यह पुराने जमाने की सोच के लोग | दुनियां कहाँ की कहाँ पहुँच गई
और इनकी वही घिसी पिटी बातें  | घर पे रानी दिल को तसल्ली दिए हुए की बेटी उसका कहा नहीं टालती |
संस्कारी है मेरी बेटी  | ताउम्र  के संस्कार  कोई दिनों में नहीं बदल जाते  | मैंने पूरी ज़िन्दगी इन बच्चों को पालने और अच्छे संस्कार देने में लगा दी  | मेरे बच्चे कभी मुझे चोट नहीं पहुंचाएंगे  | उन्होंने मुझे पल पल उनके लिए मरते देखा  है | और बेटी अपने दोस्तों संग मस्त  | दोनों अपने आप में अपनी अपनी जगह संतुष्ट  |

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