यूँ ही आज जिगर में हूक सी उठी
क्या यही हमारे जिगर के टुकड़े हैं
जिन्हें हमारी हर बात यूँ ही लगती है
पढ़ा था सुना था भुगत अब रहे हैं
आज समझ आई पुरानी कहावत
"इंसान अपनी औलाद से हारता है "
कई बार सीना छलनी हो चुका है
कहाँ गए वो नन्हे हाथ
जो ऊँगली थामे चलते थे
कहाँ गया वो प्यार जो पल्लू
थामे चलता था
वक़्त बदल गया या हम ठहर गए हैं
बड़े अजीब भंवर में फंस गए हैं
वो बचपन अच्छा था
जब दुआएँ मांगती माँ
हर दुःख खुद के लिए मांग लेती थी
क्या यही हमारे जिगर के टुकड़े हैं
जिन्हें हमारी हर बात यूँ ही लगती है
पढ़ा था सुना था भुगत अब रहे हैं
आज समझ आई पुरानी कहावत
"इंसान अपनी औलाद से हारता है "
कई बार सीना छलनी हो चुका है
कहाँ गए वो नन्हे हाथ
जो ऊँगली थामे चलते थे
कहाँ गया वो प्यार जो पल्लू
थामे चलता था
वक़्त बदल गया या हम ठहर गए हैं
बड़े अजीब भंवर में फंस गए हैं
वो बचपन अच्छा था
जब दुआएँ मांगती माँ
हर दुःख खुद के लिए मांग लेती थी
यह कैसे रिश्ते हैं जो समझ से बहर हैं
ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ, बहुत सुखद अहसास रहा। बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना।
ReplyDeleteकमेन्ट में जो वर्ड वेरिफिकेशन है कृपया उसे हटा लेने से कमेंट करने में पाठको को असुबिधा न होगी धन्यबाद।
धन्यवाद राजेन्द्र कुमार जी
ReplyDeleteमैं कोशिश करती हूँ