Sunday, October 27, 2013

फ़रिश्ते ज़मीं पे ही मिलते हैं

 9 जनवरी का दिन था , अपने पति के दफ़्तर जाने के बाद ठण्ड होने के कारण दोबारा रजाई में दुबक गई | आँख खुली तो लगभग दोपहर के 12 बज रहे थे | अपने लिए चाए बनाई और दोपहर के खाने की तैयारी  शुरू कर दी | आज मन वैसे भी खुश था शाम को घर बापिस जाना था बच्चों के पास | तभी दरवाज़े की घंटी बजी सोचा आज जल्दी आ गए होंगे , जैसे ही दरवाज़ा खोला दफ़्तर के ही कुछ लोग खड़े थे | रसोई में अध् कटी सब्जी  वैसे ही छोड सवालिया नज़र से उनकी तरफ देखा | उनमें से मैं सिर्फ एक को ही जानती थी  | उसी ने कहा की भाभी जी हमारे साथ चलिए भाई साहब की तबीयत खराब है | हतप्रत खड़ी मैं कुछ सोच ही ना पाई और न कह पाई |
                                                                        बेगानी  जगह  न जान न पहचान किसी से कुछ देर सोच कर मैं चल पड़ी |  वहां से हॉस्पिटल का रास्ता लगभग 8कि. मी . पूरे रास्ते उनमें से किसी ने कोई बात नहीं की | दिल डूबा  जा रहा था कि पता नहीं क्या हो गया अच्छे  भले तो गए थे सुबह | जैसे ही हम लोग मेडिकल  यूनिवर्सिटी पहुंचे  वहां का दृश्य देख कर सन्न रह गई | मेरे पति को डॉक्टरों ने घेर रखा  था अंदर जाने की इजाजत नहीं थी | वहां जा के पता चला कि दिल का दौरा पड़ा है दफ़्तर में ही | सारा स्टाफ़ वहां सहमा हुआ खड़ा था | मैं तो रो भी न पाई किसको रो के दिखाती | कुछ लोग दिलासा देने लगे | कुछ देर बाद डॉक्टर ने मुझे बुलाया कि कुछ देर बात कर सकती हैं आप , खुद को मजबूत करके अंदर जब गई तो क्या  बात करती | दर्द में छटपटा रहे थे ICU में  थे , फिर भी इतना ही कह पाई कि क्या  हुआ कोई बात नहीं अगर कोई  चिंता है तो छोड़ दीजिये हम दोनों ने आजतक भी सब का सामना किया है | उन्होंने हाथ हिला कर ही जबाब दिया | मुझे बाहर  भेज दिया गया | अब क्या  करूँ किसको पूछूँ कुछ समझ नहीं आ रहा था | पैसे भी उतने ही थे मेरे पास | डॉ  को पूछा कि  आप बताएं  कितने पैसे  जमा करवाने हैं मुझे , उनमें से एक डॉ  जिनका नाम मुझे आज भी याद है डॉ विक्रम मेरे पास आये और बोले मैडम कोई बात नहीं आप मुझे बताएं  कितने पैसे चाहिए आप मुझसे ले लीजिए | ऐसे फ़रिश्ते भी होते हैं दुनियां में नमन है मेरा उनको  | उनका दर्द कंट्रोल ही नहीं हो रहा  था  और बारिश थी कि  वो भी अपने पूरे रूप में थी  पूरी रात  घनघोर बारिश होती रही |
                                                                                               जनवरी माह की ठण्ड उपर से घनघोर बारिश , नंगे  पांव दोपहर से घूम रही थी |मकान मालिक को घर से फोन गया तो वो भी हस्पताल आ गए और ढाढस  बंधाने लगे कि  आप किसी तरह की चिंता न करें हम सब हैं | अगर पैसों की जरुरत होगी तो मैं हूँ यहाँ पर | शाम तक दफ़्तर का सारा स्टाफ़ वहीँ था क्यूंकि सबको पता था कि मैं इस जगह से बिलकुल अंजान  थी बाकी लोग कुछ को मदद के लिए हस्पताल में छोड़कर चले गए  |अपने माँ बाप को  सूचना भिजवा दी पर उनेहं  भी पहुँचने में  8 घंटे लगने थे | उस दौरान मुझे नहीं पता वो दफ़्तर का आदमी वरिश में कहाँ से बार बार दवाइयां ला रहा था , जो कुछ चाहिए था कहाँ से ला रहा था | एक ऑफिसर जाते जाते मुझे कुछ रकम दे गए ताकि जरुरत पड़ने पे काम आ सके | पर वहां हर  कोई मेरे लिए फ़रिश्ता था | आधीरात  तक माँ और पापा मेरी छोटी बहन के साथ पहुंचे जब उनेह मिलने बाहर आई तो पता चला कि  कितनी कंपकंपाती ठंड थी और वो दफ़्तर का आदमी भीगा हुआ बहार बैठा था |
                                  दर्द रुकने  का नाम नहीं ले रहा था डॉ ने और दवा देने से मन कर दिया | वो दर्द से छटपटा    रहे थे | सुबह तक पापा को छोड़ कर बाकी सब लोग वापिस चले गए | मुझे तो बाद में पता चला कि डॉ ने साथ ले जाने से मना कर दिया था | पता नहीं कब आँख लग गई मैं जमीन पर ही सो गई थी | कुछ देर बाद पास के एक मरीज़ की पत्नी ने मुझे चाय दी वो बजुर्ग महिला शायद देख रही थी या भांप गई थी कि  मैं अकेली हूँ और  नई जगह है मेरे लिए | कौन कहता है कि फ़रिश्ते आसमां मैं होते हैं , मुझे तोहर  इंसान वहां फ़रिश्ता लग रहा था  | फ़रिश्ते इसी ज़मीं पे हैं |
 

9 comments:

  1. बहुत सुंदर लिखा आशा... यही तो इंसानियत होती है

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  2. http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/ के शुक्रवारीय अंक १/११/१३ में आपकी रचना को शामिल किया गया हैं कृपया अवलोकनार्थ पधारे ..... धन्यवाद

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  4. sahi kaha aapne frishte jameen par hi milte hain

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  5. बहुत सुन्दर मार्मिक रचना

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